Sunday 16 October 2011

तीसरा मत: रेप मामलों में मदद


मैं रेप पीडिता को मदद देने की मुखालफत हरगिज नहीं कर रहा हूँ. सही बात तो ये है कि हमारा जूडिसरी सिस्टम काफी कमजोर है.यही कारण की आरोपी समय से अपने किये कि सजा नहीं पाता.जितना जल्द हो सके न्यायपालिका को मुकदमा फ़ाइनल कर देना चाहिए.रही मुआवजे की बात तो क्या मुआवजा पीडिता के जख्म भरने में सक्षम है ऐसा नहीं है.मुआवजा देने से किसी भी समस्या का समाधान नहीं होने वाला.हाँ अगर फास्टट्रेक अदालत में मुकदमा चले तो बात बन सकती है। ये भी हो सकता है इसका गलत इस्तेमाल होना शुरू हो जाये. 
इस मुकदमे का एक दुखद पहलू और है. अदालत में वर्कलोड. वो इसलिए की 90% मुकदमे बोगस होते है.यानि लड़का-लड़की सब कुछ राजी नामे से करते है और जोड़ा किसी दूर दराज इलाके में जाकर रहने भी लगता है. मगर लडकी के माँ-बाप अपहरण की रिपोर्ट लिखा देते है. नतीजा पुलिस जोड़े को उठा लाती है. कोर्ट में पेशी के बाद लड़की को नारी निकेतन भेज देते है लड़के को जेल. ये वो स्टेज होती जब लड़का सब कुछ झेलने को मजबूर हो जाता है. 
जेल में भी इश्क का भूत लड़के पर सवार होता है मगर पेशी होते ही इश्क का भूत लड़के के सर से ऐसे गायब होता है जैसे गधे के सर से सींग. वजह साफ़ होती है लड़की अपने माँ-बाप के कहने से लड़के खिलाफ बयान देती है कि जो कुछ हुआ वो सब मेरी मर्जी के खिलाफ हुआ है.इतना सुनते ही लड़के के पैरों के नीचे से जमीं निकल जाती है. कोर्ट में लड़की के द्वारा दिए गए बयान फुल एंड फ़ाइनल होते है. क्योंकि 164  के बयान जज के चेंबर में होते है. वो भी नितांत अकेले में. 
अब आप ही बताओ कि दोनों में से मदद किसकी की जाये और तो और ट्रायल के दौरान लड़की शादी कर लेती है लड़का अपनी जेल में अपनी मुहब्बत को कोस रहा होता है. मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि लड़के के साथ जो घटित हुआ आखिर उसका जिम्मेदार कौन होगा.बाई चांस अगर मुकदमा बरी हो गया तो लड़के ने जेल में जो तीन चार साल बिताये है उनकी भरपाई आखिर कौन करेगा. कोर्ट में 95% मुक़दमे ऐसे है जिसमे रजामंदी से सब कुछ होता मगर फिर भी ट्रायल में है