Friday 4 November 2011

भगवान: नायक या खलनायक एपिसोड-३


"हिन्दुइस्म धर्म या कलंक के सौजन्य से :एल आर बाली जी द्वारा लिखित"
 
6. नाव में भोग करने वाला महारिषी : पराशर
वेद ब्यास के पिता महारिषी पराशर प्रसिद्ध ब्रह्मरिशियों में एक है और वे पराशर स्मृति नामक धर्मशास्त्र के प्रवर्तक भी है जो कलयुग के लिए मानी बताई जाती है.उन्होंने केवट राज की कन्या सत्यवती के गर्भ से व्यास को किस परिस्तिथि में उत्पन्न किया इसकी कथा महाभारत, आदि पर्व अध्याय ६८ में आई है ये महाराज एक बार तीरथ यात्रा को निकले की अकस्मात यमुना नदी को नाव के द्वारा पार करती हुई सत्यवती से इन महाराज की आँखें चार हो गई ये महाशय चले तो थे तीर्थ का पुण्य कमाने के लिए लेकिन इनकी आँखे लड़ गई वो भी अचानक ही यमुना नदी को नाव के द्वारा पार करती हुई सत्यवती से.चले तो थे तीर्थ यात्रा  का पुण्य कमाने पर यहाँ तो उन्होंने एक दूसरे ही तीर्थ में गोता  लगाने की ठान ली थी वे सत्य वती के अतुल रूप यौवन को देखते ही कामांध हो उठे और  सत्यवती के लाख मना करने पर भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आये और अपने समस्त ब्रह्मतेज तथा योगबल को भाड़ में झोंक कर अपनी काम पिपासा को शांत करने की जुगत में लग गए.महरिशी का मैथुन विषयक प्रस्ताव सुन कर सत्यवती ने कहा की हे ऋषिराज  ! नदी के दोनों किनारों पर ऋषियों के आश्रम है वहां पर ऋषि लोग खड़े है. उन लोगों के सामने हम दोनों का मिलना किस प्रकार हो सकता है ? इस पर ऋषि राज ने निहार (कुहेसा) (फोग) उन्पन्न कर दिया जिसमें सम्पूर्ण देश अंधकारमय हो गया. जब सत्यवती ने देखा की उसकी पहली आप्त्ती बेकार चली गई है तो उसने दूसरी अड़चन डाल कर इस पाप कर्म को रोकने का असफल प्रयास किया,मगर ऋषिराज के सर पर तो कामदेव
सवार हो चुके थे और इस मौके को कैसे हाथ से जाने देते फिर भी सत्यवती बोली विद्धि मान ..............यद्न्न्ताराम (७६)अर्थात:सत्यवती ने कहा, हे भगवान्!मुझे अपने पिता की वाश्वर्तिनी एक कन्या समझिये, हे पाप रहित महारिषी, आपके समागम से मेरा कन्या-भाव नष्ट हो जाएगा (७५) मेरे इस कन्या भाव के इस प्रकार नष्ट हो जाने पर, हे द्विज श्रेष्ठ, मैं अपने घर कैसे जा सकुंगीं और किस प्रकार जी सकूंगी.?हे बुद्दी संम्पन्न, इन सब बातों पर तनिक विचार कर जो करना हो उसे कीजिये पर महारिषी सत्यवती की इस उचित विनय को कहाँ मानने वाले थे वो तो कामदेव के वशीभूत हो सातवें आसमान पर उडान भर रहे थे उन्होंने बेचारी सरल ह्रदय धीवर-कन्या को अपने जाल में फंसा कर अपनी महोकामना को पूरा करके ही दम लिया. अब आप ही बताओ क्या महारिषी के द्वारा किया गया यह कृत्य नैतिक था.
7. मेनका का प्रेमी तपस्वी : विश्वामित्र
 विश्वामित्र ने मेनका की रूप राशी पर एकदम मोहित  होकर अपनी सारी तपस्या को एक बारगी पूरी तरह से मिटटी में ही मिला दिया था और जिसके फलस्वरूप दुष्यंत की प्रेमिका शकुन्तला का जन्म हुआ.इस घटना का विवरण महाभारत, आदि पर्व, अद्ध्याय ७२ में आया है. महारिषी विश्वामित्र की विकट और घोर तपस्या को देखकर
देवराज इन्द्र को यह भय हुआ की कहीं महारिषी अपनी तपस्या से इन्द्र पद ही न छीन ले.अत: उसने विश्वामित्र का तप भंग करने के लिए मेनका अप्सरा को उनके
करीब भेजा. वह महारिषी के सामने जाकर क्रीडा करने लगी की इतने में पवन देव ने उस सर्वांग सुंदरी �����������े शारीर से उसके चंद्रिका शुभ वस्त्र को उड़ा दिया और उन्होंने अपने पास बुल�����या:-त्या...........(७)..........(८).............शकुंताम(९) अर्थात:ब्रहम ऋषियों  में श्रेष्ठ विश्वामित्र ने, उसके रूप और गुणों को देखकर काम के वश  में होते हुए उसके साथ समागम की इच्छा की (७)और उन्होंने उसे अपने पास बुलाया और अनिंदित सुंदरी, वह, भी काम उपभोग के लिए इच्छुक हो गई . उनदोनों ने वहां पर बहुत दिनों तक मनमाना विहार किया (8) मनमाना विहार करने से वह सुदीर्घ काल उन दोनों को एक दिन के समान प्रतीत हुआ.उस मुनि ने मेनका में शकुन्तला को उत्पन्न किया.(९)
8. रूपवती अप्सरा के प्रेमी: भरद्वाज    
 पुराणों एवं महाभारातादी ऐतिहासिक ग्रंथों में कितने महारिषियों के विषय में यह लिखा मिलता है की उनका वीर्य अमुक अप्सरा को देखते ही स्खलित हो गया जिसके फलस्वरूप अमुक व्यक्ति की उतपत्ति हुई. कुरुक्षेत्र के प्रसिद्द वीर द्रोणाचार्य का जन्म-वृत्तांत महाभारत आदि पर्व, अद्ध्याय १३१ में लिखा है की महारिषी एक बार गंगा-स्नान को गए, वहां पर द्रताची नामक अप्सरा के अलोकिक सौंदर्य को देखकर उनका भी बेईमान मन दोल गया और उनका वीर्य स्खलित हो गया उस वीर्य को
उन्होंने द्रोना नामक यग्य  पात्र में रख दिया जिससे उस पात्र से जन्में हुए बालक का नाम द्रोणा पडा.
9. तारा को बलपूर्वक  हरने वाला :
चन्द्र चन्द्र महारिषी अत्री के पुत्र है उन्हें सर्वगुण-संपन्न जानकार ब्रहमा जी ने नि:शेष ब्राहमणों,औषधियों तथा तारागणों   का अध्पति बनाया.चन्द्र ने त्रिभुवन को जीतकर राजसूय नामक महायज्ञ किया. बल-गर्वित चन्द्र ने यग्य में आई हुई त्रिभुवन-सुंदरी तारा को, जो देवगुरु ब्रहस्पति जी  की ही पत्नी थी, बलपूर्वक अपने घर में ही रख लिया था और उन्ही के वीर्य से वह गर्भवती भी हो गई.श्री मद भगवत, स्कंध ९, अद्ध्याय १४, में लिखा है-सोयाज.............(४)...............सुर्दानाव्विग्रह: अर्थात: चन्द्र ने त्रिभुवन जीतकर राजसूय यग्य किया और घमंड से ब्रहस्पति की पत्नी तारा को बलपूर्वक हर लिया.(४) जब देवगुरु के बार-बार माँगने पर भी चन्द्र ने अपने मद से उसे नहीं छोड़ा तो उसके लिए देवताओं में महासंग्राम हुआ. क्रमश:
आगे जानिये सूर्य,  शराबी बलराम,  रंगीले कृष्ण और  संवेदनहीन राम के बिषय में इनकी कारगुजारियों को वो भी डिटेल में.....में आप मेरे साथ लगातार बने रहिएगा

यजुर्वेद : इस अश्लील संवाद का क्या कहेंगे?


यह ब्लॉग लिखने का उद्देश्य किसी को चिढ़ाना या फिर किसी का दिल दुखाना या  किसी हिन्दू की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना कतई नहीं है ,यह तो अपने रोगी देशवासियों को सच्चाई से रूबरू कराने का छोटा सा प्रयास है डॉ. भीमराव अम्बेडकर के निमन्लिखित शब्द कितने सही है और सच्चे हैं-
"वेदों में मूर्खताओं के सिवा और कुछ नहीं है."-( अंग्रेजी दैनिक 'हिन्दू' मद्रास 25 सितम्बर 1994 )  ये शब्द  1944 के एक भाषण में कहे गए थे उन पर किसी को मुकद्दमा चलाने का साहस नहीं हुआ.बाबा साहब के शब्द "जिन पुस्तकों को पवित्र-ग्रन्थ कहा जाता है वे ऐसी जालसाजियों से परिपूर्ण है जिनकी प्रवृति राजनैतिक है; जिनकी रचना पक्षपातपूर्ण है और जिनका लक्ष्य और प्रयोजन  है कपट और छल. मुझे उन की धमकियों की परवाह नहीं क्योंकि मैं यह भलीभांति जानता हूँ की वे ऐसे जाली मल्लाह है जिन्होंने अपने धर्म की सुरक्षा का बहाना करते-करते उस (धर्म) को व्यापार बना दिया है समस्त संसार में उन जैसा स्वार्थी वर्ग कोई है ही नहीं उन्होंने अपने वर्ग के विशेषहितों  के समर्थन के लिए अपनी बुद्धि को भी नीलामी पर चढ़ा दिया है यह बात कोई कम आश्चर्यजनक नहीं की रूढ़ीवाद के पागल कुत्ते उस मनुष्य पर टूट पड़ते है जिसने इनके पवित्र  ग्रंथों के विरुद्ध आवाज बुलंद करने का साहस किया होता है जो सिद्धांत उनके पवित्र ग्रंथो में दर्ज है,वही उनके समाज और देश के पतन और गिरावट के लिए जिम्मेबार है"(AMBDEKAR :Who were The shudras ? Perface pages  8 & 9 )
मैक्स मूलर के शब्दों में-वेदों के ऐतिहासिक महत्त्व को बढाया-चढ़ाया नहीं जा सकता, किन्तु बहुत सारे लोग उनके तात्विक गुणों,विशेषता भावनाओं के उन्नत-रूप को बहुत ही ऊँचे बताते है वेदों  के मंत्रों की बहुत बड़ी तादाद अत्यधिक  बचकाने है  तो भी वेदों में भाप-इंजन, बिजली, यूरपी-दर्शन और नैतिकता की खोज करना उन को उनके सही स्वरूप से वंचित करना है .वेदों के एकमात्र ज्ञान्स्रोत होने की शेखी बघारने वाले सोचें कि क्या इस शताब्दी में वेदों का अनुसरण करके भारतीय समाज का नवनिर्माण किया जा सकता है?
इन ब्राहमण ग्रंथों का अध्ययन इस प्रकार करना चाहिए जैसे कोई डोक्टर किसी पागल के वृथा बकवाद और चिल्लाहट का निरिक्षण करता है-Max Muller : Ancient Sanskrit Literature , Page 200 (Panini office Edition ) 
वेदों को मूर्खताओं का पुलंदा मानते हुए 'चार्वाक' दार्शनिकों ने अपनी टिप्पणी में कहा था - त्रयो वेदस्य .......कुत: अर्थात- तीन प्रकार के लोगों व्यक्तियों ने यानी कपटियों, भांडों और ठगों ने वेदों की रचना की है. ये बुद्धिमान लोगों की रचनाएं नहीं है- Critique on Vedas P-43  
श्री बी.डी.कोशाम्बी के शब्दों में "the value of thoughts is to be judged by they social advance which  they encourage ."
आज समाज की ऐसी हालत, ब्राहमणवादी विचारधारा के कारण हुई है जिसने हिन्दुओं को रोगी बना रखा है. डॉ. भीमराव आंबेडकर के शब्दों में- "Hindus are the sickmen of India and their sickness is causing danger to the health and happiness of other Indians ." (Dr . Baba Ambedkar Writings and Speeches Vol ) अर्थात- हिन्दू भारत के रोगी लोग है और उनकी बीमारी अन्य भारतीयों की तंदरुस्ती, सुख-शांति व खुशहाली के लिए खतरा पैदा कर रही है. रोगी हिन्दुओं को तंदरुस्त बनाने का यह ब्लॉग एक छोटा सा प्रयास है मुझे आशा है की हमारे इस सही व सच्चे प्रयास पर चिढ़ने की बजाये इसे एक निर्माणात्मक कदम के रूप में परखा और समझा जाएगा.

वेदों की बहस में ज्यादा ना पड़ते हुए मैं आपको इन वेदों क��� कुछ बानगी पेश कर रहा हूँ. अगर किसी भाई को अगर शक हो तो ग्रन्थ खोलकर बताये गए अध्याय पर पढ़ सकता है. मैं आपसे वादा करता हूँ की जो कुछ लिखूंगा वो लाग-लपेट रहित होगा. सबसे पहले अश्लीलता का ही उदहारण लेते है. इस छेड़छाड़ को आप क्या कहेंगे - यकास्कौ शकुन्तिकाह्लागीती वंचती | आ हन्ति गमे निगाल्गालिती धारका || ( यजुर्वेद २३-२२) अर्थात - पुरोहित कुमारी-पत्नियों से उपहास करते है। पहला पुरोहित कुमारी (= लड़की) की योनि की ओर संकेत करके कहता है कि जब तुम चलती हो तो योनि से 'हल-हल' की ध्वनी निकलती है, मानो चिड़ियाँ चहक रही हो। जब योनि में लिंग प्रवेश करता है, तब 'गल-गल' की ध्वनि निकलती है. यकोअस्कैउ शकुन्तक आहाल्गीती वन्चती | विवाक्ष्ट एव ते मुखाम्ध्वयों पा नस्त्वंभी भाष्था: (यजुर्वेद २३/२३) अर्थात- वे पुरोहित के लिंग की ओर संकेत करके कहती है कि हे पुरोहित, तुम्हारे मुंह से 'हल-हल' की ध्वनि निकलती है, जब तुम बोलते हो, तुम्हारा लिंग तुम्हारे मुंह के ही सामान है, क्योंकि इसमें भी छेद है अत: तुम हम से जबान न चलाओ। तुम भी हमारे जैसे ही हो. (मैं शास्त्री जी से प्राथना करूंगा कि ये बातें किन परिस्थितियों में कही गई कृपया करके मुझ खल अज्ञानी को समझाने का प्रयास करे और मेरे ज्ञान रूपी सागर में इजाफा करे.)
अब ज़रा जंगी बातों का भी जिक्र हो जाए." हे इन्द्र ! तुम अपने शत्रुओं को वशीभूत कर लेते हो। इस नास्तिक को वशीभूत करो। यह तुम्हारे स्त्रोता का अहित करता है। इसके विरुद्ध तीक्ष्ण वीर को प्रेरित कर इसे नष्ट कर डालो." (यजुर्वेद ७.२.१८)  (अबे भैये ये हुंकार तो मेरे खिलाफ लगाती है मैं ही सबसे बड़ा नास्तिक हूँ। आजकल सभी देवी-देवता और पुरोहित होस्लेवाला को देखते ही कन्नी काट जाते हैं। कोई मुझे वशीभूत करे या ना करे मगर एनबीटी वालों ने जरुर वशीभूत कर रखा है वर्ना तुम्हारे इन्द्र की तो मैं ऐसी दुडकी लगवाता कि वो भी याद करता कि किस होस्लेवाला से पाला पड़ा है और कहता कि होस्लेवाला भी पूरे होसले के साथ हमारी ...............एक करने पर अमादा है. मैं तो इन्द्र को यही कहूंगा कि धन्यवाद करो ब्लॉग संपादक जी का जो मुझे थो़ड़ा जकड रखा है। अगर संपादक जी थोड़ी से ढील दें तो फिर मजा आये इस खेल का)
अब ये तो मिसाल हुई मक्कारी की, नीचे पढिये कैसे सोम  पान करा  इन्द्र को अपने वश में करने के चक्कर में है ये पुरोहित पण्डे." हे इन्द्र! तुम हमारे यज्ञ को स्वीकार कर हम से संतुष्ट होने वाले व्रत्रहंता सर्वज्ञाता हो मरुतों के सहित सोम पान करो और शत्रुओं को नष्ट करो, उन्हें रणभूमि से भगाओ, फिर हमें सब प्रकार से अभय दान करो" (यजुर्वेद १.२) ( अमां यार, तुम आज तक संतुष्ट नहीं हो पाए हो जब कि चारों ओर तुम्हारा ही वर्चस्व है। लोगों को डरा-डरा कर अपना उल्लू सीधा करने पर लगे हो)।
जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा, अब आप ही बताएं  क्या ये सब वेदों की अच्छी बातें हैं। ये फैसला मैं आप पर ही छोड़ता हूँ। इस विषय में अपनी बेबाक राय रखना ना भूलें। अगर एन बी टी परिवार ने मुझे अपनी बात रखने का मौका दिया तो मैं आपसे वादा करता हूँ अपनी बेबाक राय रखने से कहीं भी नहीं चूकूँगा। ये मेरा अपने आपसे वादा है और आप से भी, जब-जब मुझे मौका मिलेगा मैं आपसे रूबरू होता रहूंगा भले ही मेरे ब्लॉग ब्लॉक ही क्यूँ ना हो जाए। और कुछ नहीं तो फेसबुक सबसे बड़ा हथियार है अपनी बेबाक राय रखने के लिए. ये जो आपने पढ़ा ये तो सिर्फ एक सैम्पल है आगे-आगे आपको जानने के लिए बहुत कुछ मिलेगा एक ऐसा अनजाना सच जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते, मुझे आप किसी भी धार्मिक ब्लॉग पर ढूंढ सकते ....वो भी जब, जब मेरा ब्लॉग  आनलाइन नहीं हुआ तो.....? मैं आजकल धर्म नाम कि साइट पर अक्सर विजिट करता हूँ और धर्म के ठेकेदारों कि बखिया उध��ड़ने से बाज नहीं आता हूँ.

अथर्ववेद - अश्लीलता के कुछ और नमूने


इस ब्लॉग में आप पढ़ेंगे की वेदों में किस प्रकार अश्लीलता, जन्गी बातों और जादू-टोने को परोसा गया है.

धर्म-युद्ध (जेहाद)

हिन्दुओं के अन्य धर्मग्रंथों रामायण, महाभारत और गीता की भांति वेद भी लडाइयों के विवरणों से भरे पड़े है. उनमें युद्धों की कहानियां, युद्धों के बारे में दांवपेच,आदेश और प्रर्थनाएं इतनी हैं कि उन तमाम को एक जगह संग्रह करना यदि असंभव नहीं तो कठिन जरुर है. वेदों को ध्यानपूर्वक पढने से यह महसूस होने लगता है की वेद जंगी किताबें है अन्यथा कुछ नहीं। इस सम्बन्ध में कुछ उदाहरण यहाँ वेदों से दिए जाते है ....ज़रा देखिये 
(1) हे शत्रु नाशक इन्द्र! तम्हारे आश्रय में रहने से शत्रु और मित्र सही हमको ऐश्वर्य्दान बताते हैं |६| यज्ञ  को शोभित करने वाले, आनंदप्रद, प्रसन्नतादायक तथा यज्ञ  को शोभित करने वाले सोम को इन्द्र के लिए अर्पित करो |१७| हे सैंकड़ों यज्ञ  वाले इन्द्र ! इस सोम पान से बलिष्ठ हुए तुम दैत्यों के नाशक हुए . इसी के बल से तुम युद्धों में सेनाओं की रक्षा करते हो |८| हे शत्कर्मा  इन्द्र ! युद्धों में बल प्रदान करने वाले तुम्हें हम ऐश्वर्य के निमित्त हविश्यांत भेंट करते हैं |९| धन-रक्षक,दू:खों को दूर करने वाले, यग्य करने वालों से प्रेम करने वाले इन्द्र की स्तुतियाँ गाओ. (ऋग्वेद १.२.४)
(२) हे प्रचंड योद्धा इन्द्र ! तू सहस्त्रों प्रकार के भीषण युद्धों में अपने रक्षा-साधनों द्वारा हमारी रक्षा कर |४| हमारे साथियों की रक्षा के लिए वज्र धारण करता है, वह इन्द्र हमें धन अथवा बहुत से ऐश्वर्य के निमित्त प्राप्त हो.(ऋग्वेद १.३.७)
(३) हे संग्राम में आगे बढ़ने वाले और युद्ध करने वाले इन्द्र और पर्वत ! तुम उसी शत्रु को अपने वज्र रूप तीक्षण आयुध से हिंसित करो जो शत्रु सेना लेकर हमसे संग्राम करना चाहे. हे वीर इन्द्र ! जब तुम्हारा वज्र अत्यंत गहरे जल से दूर रहते हुए शत्रु की इच्छा करें, तब वह उसे कर ले. हे अग्ने, वायु और सूर्य ! तुम्हारी कृपा प्राप्त होने पर हम श्रेष्ठ संतान वाले वीर पुत्रादि से युक्त हों और श्रेष्ठ संपत्ति को पाकर धनवान कहावें.(यजुर्वेद १.८)
(४) हे अग्ने तुम शत्रु-सैन्य हराओ. शत्रुओं को चीर डालो तुम किसी द्वारा रोके नहीं जा सकते. तुम शत्रुओं का तिरस्कार कर इस अनुष्ठान करने वाले यजमान को तेज प्रदान करो |३७| यजुर्वेद १.९)
(५) हे व्याधि ! तू शत्रुओं की सेनाओं को कष्ट देने वाली और उनके चित्त को मोह लेने वाली है. तू उनके शरीरों को साथ लेती हुई हमसे अन्यत्र चली जा. तू सब और से शत्रुओं के हृदयों को शोक-संतप्त कर. हमारे शत्रु प्रगाढ़ अन्धकार में फंसे |४४| 
(६)हे बाण रूप ब्राहमण ! तुम मन्त्रों द्वारा तीक्ष्ण किये हुए हो. हमारे द्वारा छोड़े जाने पर तुम शत्रु सेनाओं पर एक साथ गिरो और उनके शरीरों में घुस कर किसी को भी जीवित मत रहने दो.(४५) (यजुर्वेद १.१७)
 (यहाँ सोचने वाली बात है कि जब पुरोहितों की एक आवाज पर सब  कुछ हो सकता है तो फिर हमें चाइना और पाक से डरने की जरुरत क्या है इन पुरोहितों को बोर्डर पर ले जाकर खड़ा कर देना चाहिए उग्रवादियों और नक्सलियों के पीछे इन पुरोहितों को लगा  देना चाहिए फिर क्या जरुरत है इतनी लम्बी चौड़ी फ़ोर्स खड़ी करने की और क्या जरुरत है मिसाइलें बनाने की) 
 अब जिक्र करते है अश्लीलता का :-वेदों में कैसी-कैसी अश्लील बातें भरी पड़ी है,इसके कुछ नमूने आगे प्रस्तुत किये जाते हैं (१) यां त्वा .........शेपहर्श्नीम || (अथर्व वेद ४-४-१) अर्थ : हे जड़ी-बूटी, मैं तुम्हें खोदता हूँ. तुम मेरे लिंग को उसी प्रकार उतेजित करो जिस प्रकार तुम ने नपुंसक वरुण के लिंग को उत्तेजित किया था. 
 (२) अद्द्यागने............................पसा:|| (अथर्व वेद ४-४-६) अर्थ: हे अग्नि देव, हे सविता, हे सरस्वती देवी, तुम इस आदमी के लिंग को इस तरह तान दो जैसे धनुष की डोरी तनी रहती है 
 (३) अश्वस्या............................तनुवशिन || (अथर्व वेद ४-४-८) अर्थ : हे देवताओं, इस आदमी के लिंग में घोड़े, घोड़े के युवा बच्चे, बकरे, बैल और मेढ़े के लिंग के सामान शक्ति दो 
 (४) आहं  तनोमि ते पासो अधि ज्यामिव धनवानी, क्रमस्वर्श इव रोहितमावग्लायता (अथर्व वेद ६-१०१-३) मैं तुम्हारे लिंग को धनुष की डोरी के समान तानता हूँ ताकि तुम स्त्रियों में प्रचंड विहार कर सको.
 (५) तां पूष...........................शेष:|| (अथर्व वेद १४-२-३८) अर्थ : हे पूषा, इस कल्याणी औरत को प्रेरित करो ताकि वह अपनी जंघाओं को फैलाए और हम उनमें लिंग से प्रहार करें.
 (६) एयमगन....................सहागमम || (अथर्व वेद २-३०-५) अर्थ : इस औरत को पति की लालसा है और मुझे पत्नी की लालसा है. मैं इसके साथ कामुक घोड़े की तरह मैथुन करने के लिए यहाँ आया हूँ. 
 (७) वित्तौ.............................गूहसि (अथर्व वेद २०/१३३) अर्थात : हे लड़की, तुम्हारे स्तन विकसित हो गए है. अब तुम छोटी नहीं हो, जैसे कि तुम अपने आप को समझती हो। इन स्तनों को पुरुष मसलते हैं। तुम्हारी माँ ने अपने स्तन पुरुषों से नहीं मसलवाये थे, अत: वे ढीले पड़ गए है। क्या तू ऐसे बाज नहीं आएगी? तुम चाहो तो बैठ सकती हो, चाहो तो लेट सकती हो. 
(अब आप ही इस अश्लीलता के विषय में अपना मत रखो और ये किन हालातों में संवाद हुए हैं। ये तो बुद्धिमानी ही इसे पूरा कर सकते है ये तो ठीक ऐसा है जैसे की इसका लिखने वाला नपुंसक हो या फिर शारीरिक तौर पर कमजोर होगा तभी उसने अपने को तैयार करने के लिए या फिर अपने को एनर्जेटिक महसूस करने के लिए किया होगा या फिर किसी औरत ने पुरुष की मर्दानगी को ललकारा होगा) तब जाकर इस प्रकार की गुहार लगाईं हो.
आओ अब जादू टोने पर थोडा प्रकाश डालें : वैदिक जादू-टोनों और मक्कारियों में किस प्रकार साधन प्रयोग किये जाते थे, इस का भी एक नमूना पेश है :
यां ते.......जहि || (अथर्व वेद ४/१७/४) 
अर्थात : जिस टोने को उन शत्रुओं ने तेरे लिए कच्चे पात्र में किया है, जिसे नीले, लाल (बहुत पके हुए) में किया है, जिस कच्चे मांस में किया है, उसी टोने से उन टोनाकारियों को मार डाल.
सोम पान करो : वेदों में सोम की भरपूर प्रशंसा की गई है. एक उदाहरण "हे कम्यवार्षेक इन्द्र! सोमभिशव के पश्चात् उसके पान करने के लिए तुम्हें निवेदित करता हूँ यह सोम अत्यंत शक्ति प्रदायक है, तुम इसका रुचिपूर्वक पान करो." (सामवेद २(२) ३.५)
संतापक तेज : सामवेद ११.३.१४ में अग्नि से कहा गया है "हे अग्ने ! पाप से हमारी रक्षा करो. हे दिव्य तेज वाले अग्ने, तुम अजर हो. हमारी हिंसा करने की इच्छा वाले शत्रुओं को अपने संतापक तेज से भस्म कर दो."
सुनते है,देखते नहीं : ऋग्वेद १०.१६८.३-३४ में वायु (हवा) से कहा गया है : "वह कहाँ पैदा हुआ और कहाँ आता है? वह देवताओं का जीवनप्राण, जगत की सबसे बड़ी संतान है. वह देव जो इच्छापूर्वक सर्वत्र घूम सकता है. उसके चलने की आवाज को हम सुनते है किन्तु उसके रूप को देखते नहीं."
इन मक्कारियों के विषय में आप क्या कहना चाहेंगे जरुर लिखे .....?.................क्रमश:  
नोट : मेरा किसी की भावनाओं को ठेस पहुचाने का मकसद नहीं है और ना ही मैं किसी को नीचा दिखाना चाहता हूँ मैंने तो बस वही लिखा है जो वेदों में दर्ज है अगर किसी भाई को शक हो तो वेदों में पढ़ सकता है आप मेरे मत से सहमत होओ ये जरुरी नहीं है और मैं आपके मत से सहमत होऊं ये भी जरुरी नहीं है. ब्लॉग पढने के लिए धन्यवाद.

राम ने सीता से कहा, मैं तुम्हारे लिए नहीं लड़ा


"हिन्दुइस्म धर्म या कलंक के सौजन्य से :एल आर बाली जी द्वारा लिखित"
राम के बारे में मैं पहले लिख चुका हूं। राम ने सीता से क्या कहा, पढ़िए वाल्मीकि रामायण के हवाले से।
1. रावणाकपरिक्लीषटान........................(२०) से (२४)  (सर्ग ११५, युद्धकांड) अर्थात :१. रावण तुमको अपनी गोद में उठा कर ले गया. वह तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल चुका है ऐसी अवस्था में अपने कुल को महान मानने वाला मैं तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ ? (२०) भद्रे, मेरा यह निश्चित विचार है. तदनुसार ही मैंने तुम्हें सब कुछ कहा है. तुम चाहो तो लक्ष्मण के साथ रह सकती और, चाहो तो भरत के साथ रह सकती हो (२२) सीता, तुम्हारी इच्छा हो तो तुम शत्रुघ्न, बंदरों के राजा सुग्रीव अथवा राक्षसराज विभीषण के पास भी रह सकती हो तुम्हें जहां रहना अच्छा लगे वहीँ रह सकती हो (२३) हे सीता, मुझे लगता है की तुम्हारे जैसी रूपवती नारी को अपने घर में देख कर रावण चिरकाल तक तुम से दूर ही नहीं रह सका होगा.(२४)

2 .अषासी.............त्वया (१२ से १८) अर्थात :- भद्रे, समरांगन में शत्रु को पराजित करके मैंने तुझे उसके चंगुल से छुड़ा लिया है पुरुषार्थ के द्वारा जो कुछ संभव था, वह सब मैंने किया है.(१२) अपने तिरस्कार का बदला चुकाने के लिए मनुष्य का जो कर्तव्य है, वह सब मैंने अपनी मानरक्षा की अभिलाषा से रावण का वध करके पूरा किया(१३) किन्तु, तुम्हें मालूम होना चाहिए की मैंने जो यह सारा परिश्रम किया है, मित्रों की सहायता से युद्ध में विजय पाई है, वह तुम्हें प्राप्त करने के लिए नहीं था (१५) तुम पर संदेह किया जा सकता है, फिर भी तुम मेरे सामने खड़े हो  जैसे आँख के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती, उसी प्रकार आज तुम भी मुझे अत्यंत अप्रिय लग रही हो (१७) जनक कुमारी,तुम स्वतन्त्र हो, तुम्हारी जहाँ इच्छा हो चली जाओ. दसों दिशाएं तुम्हारे लिए खुली हैं अब से मुझे तुम से कोई प्रयोजन नहीं (१८) 
3. राम का एक गुण यह भी बताया गया है कि वह एकपत्नीव्रत थे। लेकिन बाल्मीकि ने  राम की बहुत सी पत्नियों की ओर इशारा किया है.(मंथरा कैकेयी को कहती है कि राम की स्त्रियाँ, न कि स्त्री, प्रसन्न होंगी-हृष्ट:खलु भविष्यन्ति रामस्य स्त्रीय: | (बाल्मीकि रामायण,अयोध्या कांड ८/१२) 
एक और उदाहरण। दक्षिणा...............विशारदा: (७-४२-२१) अर्थात : उस समय नाचने गाने में कुशल,बहुत सी चतुर तथा रूपवती स्त्रियाँ शराब से मस्त होकर राम के आगे नाचने लगी. मनोअमिरामा.................परम्भुशिता: (७-४२-२२) अर्थात : रमण करने वालों में श्रेठ राम ने मनमोहक और बहुत अच्छी प्रकार से सजी हुई उन स्त्रियों से रमण किया.
कुछ पाठकों ने अपना ब्लॉग के संपादक से शिकायत की है कि मैंने ऊपर जो लिखा है, वह अपने मन से लिख रहा हूं। मैं ऐसे सभी पाठकों से आग्रह करता हूं कि वे खुद वाल्मीकि रामायण खरीद कर पढ़ें और अगर वह संभव न हो तो इस लिंक पर क्लिक करें। यहां पूरी रामायण टीका समेत दी गई है। सर्ग की जगह चैप्टर खोजें। मसलन सर्ग 115 के लिए चैप्टर 115 देखें। आपको स्वयं पता चल जाएगा कि सत्य क्या है। मेरा मकसद भी पाठकों को सत्य से परिचित कराना है।

सीता की नज़र से देखिए राम का व्यवहार


"हिन्दुइस्म धर्म या कलंक" के सौजन्य से एल आर बालीजी द्वारा लिखित 
आज मैं आपको रामायण के राम के विषय में कुछ अनजाने पहलू से अवगत कराउंगा? आप खुद ही विचार करके देखिए - क्या राम के ये कार्य एक अवतार के रूप में सही ठहराये जा सकते हैं? आपकी टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
बाली का धोखे से वध :  
राम ने बाली का धोखे से क़त्ल किया. रामायण में बाली ने श्रीराम के चरित्र और व्यक्तित्व का कितना उपर्युक्त चित्र खिंचा है. बाली,राम को संबोधित करते हुए कहते है- "आप हतबुद्धि है।.आप धर्म-ध्वजी है.दिखाने के लिए धर्म का चोला पहने हुए है आप वास्तव में अधर्मी है आपका आचार-व्यवहार पाप-पूर्ण है आप घास-फूंस से ढके हुए कूप के सामान धोखा देने वाले है.(बाल्मीकि रामायण ४-७-२२) आप कामेच्छा के गुलाम है,क्रोधी है,मर्यादा में न रहने वाले है,चंचल है राजाओं की मर्यादा का बिना विचार किये किसी को भी अपने तीर का निशाना बना सकते है." 


शम्बूक की ह्त्या :

बाल्मीकि रामायण के उत्तर कांड तथा उत्तर रामचरित नाटक में वर्णित राम द्वारा शुद्र तपस्वी शम्बूक की ह्त्या से साफ़ जाहिर है कि श्री राम अत्यंत निर्दयी और अत्याचारी अवतार राजा थे. शम्बूक की हत्या को रामायण में बाल्मीकि ने श्रीराम के ही मुख से इस तरह वर्णन किया है-इस बात को तकरीबन सभी जानते हैं इस प्रसंग में राम ने घोर तपस्या करते शम्बूक से पूछा-"तुम्हे किस वस्तु के पाने की इच्छा है? तपस्या द्वारा संतुष्ट हुए इष्ट-देवता से वर के रूप में तुम क्या पाना चाहते हो-स्वर्ग अथवा दूसरी कोई वस्तु? कौन-सा ऐसा पदार्थ है, जिसके लिए तुम ऐसी कठोर तपस्या करते हो, जो दूसरों के लिए दुष्कर है? तापस ! जिस वस्तु की प्राप्ति की इच्छा के लिए तुम इस घोर तपस्या  में लगे हुए हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ. इसके सिवा यह भी सही-सही बताना की तुम ब्राह्मण हो या दुर्जय क्षत्रिय? तीसरे वर्ग के वैश्य हो अथवा शुद्र? तुम्हारा भला हो, मेरे इस प्रश्न का यथार्थ उत्तर देना.
उस तपस्वी शम्बूक ने उत्तर दिया-"हे महायशस्वी राम! मैं शूद्र योनि में उत्पन्न हुआ हूँ. मैं निसंदेह स्वर्ग लोक जाकर देवत्व प्राप्त करना चाहता हूँ मैं इसलिए यह उग्र तपस्या कर रहा हूँ "काकुत्स्थाकुल भूषण राम मैं झूठ नहीं बोलता . देव लोक पर विजय पाने की इच्छा से तपस्या में लगा हूं आप मुझे शुद्र जानिये मेरा नाम शुद्र है" राम के ही शब्दों में -"उस शुद्र के मुहं से यह बात निकली ही थी, मैंने आव देखा ना ताव, अपने म्यान से तलवार खीच ली और उससे शम्बूक का सिर धड से अलग कर दिया." ये कहानी थोडा कम लिखी है "जब ब्राह्मण ने अपने बेटे की मौत का रोना राम के आगे रोया तब जाकर राम ने  मजबूरन शम्बूक को लुढ़काया था."

सीता के साथ अमानवीय बर्ताव:
अपनी पत्नी सीता पर तो राम ने मुसीबतों के पर्वत ही तोड़ डाले. १४ वर्षों का बनवास काटने के पश्चात् उसके चरित्र पर संदेह किया गया यानी चरित्र की शुद्धता का सबूत देने के लिए उन्हें अग्नि में कूदना पड़ा सीता कहती है-"मेरा चरित्र शुद्ध है, तो भी मुझे दूषित समझ रहे है मैं सर्वथा निष्कलंक हूँ. सम्पूर्ण जगत की साक्षी अग्नि देव ! मेरी रक्षा  करें.""सुमित्रानंदन ! मेरे लिए चिता तैयार  कर दो। मेरे इस दुःख की एक ही दवा है. मिथ्या कलंक से कलंकित होकर मैं जीवित नहीं रह सकती."(बाल्मीकि रामायण ६-२४-१)

अग्नि परीक्षा के बाद भी राम की तसल्ली नहीं हुई.  तंग आकर सीता को कहना पड़ा- "मैं मन, वाणी और क्रिया के द्वारा केवल श्रीराम की ही आराधना करती हूँ. यदि यह कथन सत्य है तो भगवती पृथ्वी मुझे अपनी गोद में स्थान दे.."(बाल्मीकि रामायण ६-९७-१५) और "सभी लोगों के देखते-देखते जानकी (सीता) रसाताल को प्रयाण कर गई."

सीता की आत्महत्या से राम के चरित्र का यह पक्ष की वह कितना निर्दयी और अत्याचारी था, अच्छी तरह उजागर हो जाता है.
शराब पीना और पिलाना :
बाल्मीकि रामायण,उत्तराखंड, सर्ग ४२ श्लोक १७-२१ में राम सीता का राजकीय उद्यान विहार का वर्णन इस तरह किया है-
अशोक वनिका ...१७...पान्वाश्न्गत:(२१) अर्थात : रामचंद्र ने अपने अंत:पुर से सटे हुए समृद्ध राजकीय उपवन में विहारार्थ प्रवेश किया और वे फूलों शोभित तथा ऊपर से कुश या बिछावन बिछाये हुए एक सुन्दर आसन पर बैठ गए. राजा काकुत्स्थ वंश में उत्पन्न रामचंद्र ने सीता जी को हाथ से पकड़ कर पवित्र मेरेय नामक मद्य को,जैसे इन्द्र शची को पिलाते है, वैसे ही पिलाया. चाकर उत्तम पकाए हुए मांस तथा नाना प्रकार के फल रामचंद्र के भोजनार्थ शीघ्र लाये. रामचंद्र के समीप जाकर नाच-गान में प्रवीण अप्सराएँ, नाग-कन्याएं, किन्नरियाँ तथा अन्य गुणी और रूपवती स्त्रियाँ मदिरा के नशे में मतवाली होकर नाचने लगीं.
उपरोक्त लिखित चंद प्रसंग जो की बाल्मीकि रामायण से लिए गए है अब आप ही बताये क्या ये प्रसंग कभी आज तक आपने किसी रामलीला या किसी धारावाहिक में आज तक देखे या सुने है. हाँ कुछ खास घटनाओं को छोड़कर, उसमें भी राम की तारीफ में कसीदे ही गढ़े गए है. क्या कहीं आपने राम को शराब पीते और मांस खाते हुए सुना था.नहीं ना...? मगर ये सच है. एक शुद्र की गर्दन धड से अलग कर देना क्या ये सही किया वो भी इसलिए कि शम्बूक एक शुद्र था. क्या राम का मांस भक्षण करना जायज था. बाली का राम को कोसना यही बताता है की राम ने कितना बड़ा छल किया था. अगर राम वाकई क्षत्रिय थे तो बाली को छुपकर मारने की क्या जरुरत थी पूरे होसले के साथ सामने आकर मारते। तब तो कुछ बात भी थी। रामायण के अनुसार राम को बस आज्ञाकारी जरुर कहा जा सकता है। इसके अलावा उन्होंने कई ऐसे कार्य किए जो सही नहीं ठहराए जा सकते.

वेद- विज्ञान के उलट और और झूठ का पुलिंदा


" वेदों में मूर्खताओं के सिवा कुछ नहीं है" ये शब्द बाबासाहब ने कहे थे मगर उस समय किसी की हिम्मत नहीं हुई जो बाबासाहब के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा सके या अपनी जबान भी खोल सके.
वेदों में ज्ञान के तौर पर कुछ नहीं है किन्तु विज्ञान के उलट बहुत कुछ सारी बातें है, जैसे पृथ्वी खड़ी है, वह अन्नरस से पूर्ण करती है, वह दूध देती है;(२) सूर्य रथ पर सवार घूमता है;(३) सूर्य ग्रहण के समय सूर्य की स्व्भार्नु नामक असुर आ दबोचता है और अत्री व अत्रिपुत्र उसे असुर को मुक्त करते है, तब समाप्त होता है. ( ऋग्वेद ८/४०/५)
( फिर तो आज के वैज्ञानिक गधे है जो ग्रहण के समय चश्मा लगा-लगा सूर्य की तरफ एक टक देखे जाते है या फिर आम जन मूर्ख है जो ग्रहण वाले दिन सूर्य की तरफ देखते है उन्हें आज तक कोई असुर नहीं नजर आया) 
वेदों को मूर्खताओं का पुलंदा मानते हुए 'चार्वाक' दार्शनिक ने अपनी टिपण्णी में इस प्रकार कहा था : (critique on Vedas 
P. 43)त्रयो..........................................................कुत: अर्थात : तीन प्रकार के व्यक्तियों यानी कपटियों,भांडों और ठगों ने वेदों की 
रचना की है. ये बुद्धिमान लोगों की रचनाएं नहीं है. वेदों पर आधारित वैदिक समाज के दुराचारों को देखते हुए श्रमण-संस्कृति के 
संचालक महामानव गौतम बुद्ध ने वेदों को "जल-विहीन रेगिस्तान" कहा है,"पथ-विहीन जंगल" कहा है, जो वास्तब में "विनाश-पथ" है. 
उन्होंने कहा है : " कोई भी आदमी जिसमें कुछ बौद्धिक तथा नैतिक प्यास है, वह वेदों के पास जा कर अपनी प्यास नहीं बुझा 
सकता" ( The buddha and His dhamm , Second Edition1974, p.60)बौद्ध दार्शनिक धर्म कीर्ति ने वेदों की बाबत अपने मार्ग दाता बुद्ध से भी ज्यादा स्पष्ट मत व्यक्त किया है. उन्होंने कहा था : वेद..........................................जाड्ये. अर्थात : वेदों की प्रमाणिकता, किसी इश्वर का सृष्ट कर्तापन, स्नान में धर्म की इच्छा रखना, जातिवाद  का घमंड, और पाप दूर 
करने के लिए शरीर को संताप देना ये पांच है अक्ल के मारे लोगों की मूर्खता की निशानियाँ ( महामानव बुद्ध,पेज १२७)लोकायात और चार्वाक कहते है : " आगम: धूर्त प्रणित" अर्थात वेद धूर्त लोगों ने तैयार किये है "त्रयो वेदस्य करतारो भंड धूर्त 
निशाचरा:" अर्थात तीनों वेदों के करता भांड, धूर्त और निशाचर है. "पशुपालन, खेती और व्यापार अभिमानास्पद व्यवसाय है, लेकिन जो लोग भस्म लगा कर यग्य कर्म करते है वह कामचोर, पौरुषहीन और बुद्धिहीन है देखिये ( भारतीय दर्शन-वैचारिक और सामाजिक संघर्ष, प्रष्ट ६९-७०)बीसवीं सदी के महानतम बुद्धिवादी नेता डॉ.आंबेडकर के मत में " veda are worthless books " यानी वेद व्यर्थ की पुस्तकें है. ( डॉ. बाबासाहब आंबेडकर राइटिंग्स स्पीचीज एंड, खंड ३, पृष्ठ ८)  मैक्स मूलर, जर्मन मूल के महान विद्वान्, जिन के व्यक्तित्व पर हिन्दुओं को बहुत नाज है, वेदों की बाबत इस प्रकार कहते है---" the historic importance of the Vedas can hardly be axaggerated , but this intrinsic merit , and particularly the beauty of elevation of its sentiments , have by many been rated far too high . A large number of Vedic hymns are childish in the extreme : tedious , low, common place ............(Chips from German Workshop , Vol . १ )but discover in it (e.e . in the Vedas ) steam Engine , Electricity and European philosophy and morality and you desprive  it of true character " (MAX  MULER : Autobiographical Essays Quoted in Tradition , Science and Society , Bangalore , 1990 , page 78 )अर्थात : वेदों के ऐतिहासिक महत्त्व को बढाया-चढ़ाया नहीं जा सकता, किन्तु बहुत सारे लोग उनके तात्विक गुणों, विशेषतया: भावनाओं के उन्नत-रूप को बहुत ही ऊँचे बताते है. वेदों के मन्त्रों की बहुत बड़ी तादाद (संख्या) अत्यधिक बचकाने है. तो भी वेदों में भाप-इंजिन, बिजली, यूरोपीय-दर्शन और नैतिकता की खोज करना उन को उनके सही स्वरूप से वंचित करना है. वेदों के एकमात्र ज्ञान स्त्रोत होने की शेखी बघारने वाले सोचें की क्या इस शताब्दी में वेदों का अनुसरण करके भारतीय समाज का नवनिर्माण किया जा सकता है.? आगे पढ़िए ( ब्राहमण ग्रन्थ : पागलों की चिल्लाहट)................................................. क्रमश: